शनिवार, फ़रवरी 19, 2005

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

(२१ फरवरी १८९७ - १५ अक्तूबर १९६१)

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

तुम हमारे हो
चुम्बन
प्राप्ति

2 टिप्पणियाँ:

5:26 pm पर, Blogger Vinod Kumar Pathak ने कहा ...

बहुत सराहनीय प्रयास है बंधू. जितनी प्रशंसा करूँ, कम है.
निराला की ''स्फटिक शिला'' कविता कृपया प्रकाशित करें , धन्यबाद

- विनोद कुमार पाठक

 
8:41 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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रामधारी सिंह दिनकर

(१९०८ - २४ अप्रैल १९७४)

रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

निराशावादी

श्यामनन्दन किशोर

श्यामनन्दन किशोर जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ
अन्तरंग
कहीं गरजे कहीं बरसे
चीख उठा भगवान
कफन फाड़कर मुर्दा बोला

1 टिप्पणियाँ:

2:33 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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अज्ञेय

(७ मार्च १९११ - ४ अप्रैल १९८७)

अज्ञेय जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

सवेरे उठा तो धूप खिली थी
नया कवि : आत्म-स्वीकार
देखिये न मेरी कारगुज़ारी
सत्य तो बहुत मिले
चाँदनी जी लो
मैंने आहुति बन कर देखा

6 टिप्पणियाँ:

1:18 pm पर, Blogger JASWIR ने कहा ...

koi ageya ki kavia sahbad post kar sakta hai??????????

 
1:19 pm पर, Blogger JASWIR ने कहा ...

shabad kavita ki sakth jarorat hai!!!

 
1:20 am पर, Blogger Munish ने कहा ...

http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_/_%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A5%87%E0%A4%AF

 
7:28 am पर, Anonymous Floranet ने कहा ...

Sound so innovative!! It's so mesmerizing to read this

 
8:43 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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2:33 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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महादेवी वर्मा

(२६ मार्च १९०७ - १२ सितंबर १९८७)

महादेवी वर्मा जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

जो तुम आ जाते

कौन तुम मेरे हृदय में
उत्तर
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना
व्यथा की रात
अश्रु यह पानी नहीं है
मैं प्रिय पहचानी नहीं

8 टिप्पणियाँ:

4:06 pm पर, Blogger डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा ...

बहुत सुन्दर ब्लॉग है... महादेवी के के जन्मदिवस २६ मार्च पर यह पोस्ट चर्चामंच पर होगी... इस बेशकीमती पोस्ट के लिए सहृदय धन्यवाद |

 
4:07 pm पर, Blogger डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा ...

शुक्रवार की चर्चा देखें ..
http://charchamanch.blogspot.com

 
12:24 am पर, Blogger Munish ने कहा ...

धन्यवाद | बहुत वर्षों में कुछ लिखा नही... दुबारा शुरू करने का प्रयास करूंगा |

 
2:59 am पर, Blogger डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा ...

जी जरूर कीजियेगा... सादर
http://charchamanch.blogspot.com/2011/03/blog-post_25.html

 
2:39 am पर, Blogger Unknown ने कहा ...

महादेवी वर्मा कौन सी समाज से हैं जो दिया कॉल मी

 
8:44 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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2:30 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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2:58 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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भवानीप्रसाद मिश्र

(२९ मार्च १९१३ - २० फरवरी १९८५)

  • आरंभिक शिक्षा होशंगाबाद में।
  • बी. ए. किया जबलपुर के राबर्टसन कॉलेज से।
  • 'भारत छोड़ो आंदोलन' (१९४२) के दौरान १३ अगस्त को बैतूल में गिरफ्तार किए गए । ढाई साल बाद १९४५ में जेल से रिहा हुए।
  • वर्धा के महिला आश्रम में अध्यापन।
  • प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'कल्पना' का संपादन (१९५२-५५, हैदराबाद)।
  • बंबई में आकाशवाणी के प्रोड्यूसर।
  • 'संपूर्ण गांधी वाङ्मय' का संपादन १९५८ से।
  • 'भूदान', 'गांधी मार्ग' जैसी पत्रिकाओं का संपादन।

कृतियाँ

  • गीतफरोश (१९५३)
  • चकित है दुःख (१९६८)
  • अंधेरी कविताएँ (१९६८)
  • गांधी पंचशती (१९६९)
  • बुनी हुई रस्सी (१९७१)
  • खुशबू के शिलालेख (१९७३)
  • व्यक्तिगत (१९७४)
  • अनाम तुम आते हो (१९७६)
  • परिवर्तन जिए (१९७६)
  • इदं न मम (१९७७)
  • त्रिकाल संध्या (१९७७)
  • कालजयी (खंडकाव्य) (१९७८)
  • मानसरोवर दिन (१९८०)
  • शरीर, कविता, फसलें और फूल (१९८४)
  • तुकों के खेल (बाल कविताएँ)
  • जिन्होंने मुझे रचा (संस्मरण)

भवानीप्रसाद मिश्र जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

दरिंदा
जाहिल मेरे बाने
बेदर्द
आराम से भाई ज़िन्दगी
चार कौए उर्फ चार हौए

2 टिप्पणियाँ:

8:45 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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2:59 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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शिवमंगल सिंह सुमन

(५ अगस्त १९१५ - २००२)

शिवमंगल सिंह सुमन जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

असमंजस

पतवार
सूनी साँझ
विवशता
मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ
आभार
पर आँखें नहीं भरीं
मृत्तिका दीप
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी (१)
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी (२)
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी (३)

भगवतीचरण वर्मा

(३० अगस्त १९०३ - ५ अक्तूबर १९८०)

भगवतीचरण वर्मा जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें
आज शाम है बहुत उदास
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार
तुम मृगनयनी
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ
तुम अपनी हो, जग अपना है
देखो-सोचो-समझो
पतझड़ के पीले पत्तों ने
कल सहसा यह सन्देश मिला
संकोच-भार को सह न सका
बस इतना--अब चलना होगा
आज मानव का सुनहला प्रात है

5 टिप्पणियाँ:

1:54 am पर, Anonymous eleorex ने कहा ...

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हरिवंशराय बच्चन

(२७ नवंबर १९०७ - १८ जनवरी २००३)

हरिवंशराय बच्चन जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :

प्रतीक्षा
निर्माण
नव वर्ष
पतझड़ की शाम
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
साजन आए, सावन आया
संवेदना
जो बीत गई
अँधेरे का दीपक
आज तुम मेरे लिए हो
तुम तूफान समझ पाओगे ?
कहते हैं, तारे गाते हैं

4 टिप्पणियाँ:

8:30 am पर, Blogger Unknown ने कहा ...

Hi Munish,
This is maneesh Pandey from Kashi..
Mitra Aap ki Harivanshrai Bachchanji ki rachanayo ka sangrah bahut hi uttam hai.
ess utkrisht kary ke liye aap ko meri tarf se dher sari hardhik badhaiyan.
Aaap se ek anuroodh hai ki ess sangrah me bachchanji ki mahan rachana MADHUSALA ko bhi sangrahit karane kasth kare.

Dhanwad,
Aap ka Mitra,
Maneesh K Pandey

 
6:02 am पर, Anonymous Floranet ने कहा ...

Pleasure to go through such wonderful work!!

 
8:46 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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3:01 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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दिन जल्दी-जल्दी ढलता है

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगॆ
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

- हरिवंशराय बच्चन

5 टिप्पणियाँ:

8:24 pm पर, Blogger Sid Mishra ने कहा ...

बहुत अच्‍छा कहा है बन्‍धु, ये कविता अपनी पहली पत्‍नि के वियोग मे लिखी थी बच्‍चन जी ने ...

 
10:05 pm पर, Blogger Munish ने कहा ...

मैंने बच्चन जी की बहुत कविताएँ नहीं पढ़ीं थीं, केवल 'मधुशाला' को छोडकर । परन्तु जब से खोजना आरम्भ किया है तो ऐसे-ऐसे मोती मिले हैं के चकित रह गया हूँ । जल्द ही उनकी और कईं कविताएँ आप कविता सागर पर पायेंगे

 
8:29 am पर, Blogger Unknown ने कहा ...

एक दम सही है। इसमें आज के जीवन के सार हैं।

आपको इतना अच्छा काम करने के लिये बधाई।

 
11:48 am पर, Blogger tbsingh ने कहा ...

a nice poem

 
2:49 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2005

चार कौए उर्फ चार हौए

बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।

कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।

हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को

कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।

- भवानीप्रसाद मिश्र

5 टिप्पणियाँ:

2:29 am पर, Blogger अनुनाद सिंह ने कहा ...

रचना बहुत अच्छी लगी | शब्दों का चुनाव बहुत प्रभावोत्पादक है |

अनुनाद

 
8:12 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

यह कविता भाई के काव्य संग्रह 'त्रिकाल संध्या' से है. आपातकाल के दौरान भवानी भाई ने रोज़ तीन कविताएं लिखने का प्रण लिया था . इन कविताओं को इस संकलन में संकलित किया गया है. यदि आप अपनी स्मृति पर थोड़ा-सा जोर डालें और थोड़ी सी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करें तो आप इस कविता में वर्णित चारों कौए उर्फ़ चारों हौवे भी आसानी से पहचान सकेंगे . एक निडर और सच्चे कवि की बेहतरीन कविता .

 
5:57 am पर, Blogger Rahul Solanki ने कहा ...

बेहतरीन शब्दों का चयन ने कविता को और अधिक प्रभावशाली बना दिया है | बहुत ही सुब्न्दर रचना | आपकी कविता बहुत ही प्रेरणा देने वाली है | Talented India News

 
8:47 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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2:48 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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गुरुवार, फ़रवरी 17, 2005

पतझड़ की शाम

है यह पतझड़ की शाम, सखे !

नीलम-से पल्लव टूट ग‌ए,
मरकत-से साथी छूट ग‌ए,
अटके फिर भी दो पीत पात
जीवन-डाली को थाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !

लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली
कू-कू कर कोयल माँग रही
नूतन घूँघट अविराम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !

नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में है कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जा‌एगी;
यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !

- हरिवंशराय बच्चन

3 टिप्पणियाँ:

5:15 am पर, Blogger लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " ने कहा ...

bahut sundar..........

 
6:46 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

wahh bahut khubb likha hai bachan ji ne

 
6:00 am पर, Blogger Rahul Solanki ने कहा ...

पतझड़ के मोसम की भी अपनी ही एक अलग बात होती है | आपकी इस कविता में पतझड़ के मोसम का बहुत अच्छा वर्णन किया गया है | काफी रोचक कविता है| Talented India News

 

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व्यथा की रात

यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है ?

ज्योति-शर से पूर्व का
रीता अभी तूणीर भी है,
कुहर-पंखों से क्षितिज
रूँधे विभा का तीर भी है,
क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है ?

छंद-रचना-सी गगन की
रंगमय उमड़े नहीं घन,
विहग-सरगम में न सुन
पड़ता दिवस के यान का स्वन,
पंक-सा रथचक्र से लिपटा अँधेरा है ।

रोकती पथ में पगों को
साँस की जंजीर दुहरी,
जागरण के द्वार पर
सपने बने निस्तंद्र प्रहरी,
नयन पर सूने क्षणों का अचल घेरा है ।

दीप को अब दूँ विदा, या
आज इसमें स्नेह ढालूँ ?
दूँ बुझा, या ओट में रख
दग्ध बाती को सँभालूँ ?
किरण-पथ पर क्यों अकेला दीप मेरा है ?
यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है ?

- महादेवी वर्मा

2 टिप्पणियाँ:

12:27 am पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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11:10 pm पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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