चाँदनी जी लो
शरद चाँदनी बरसी
अँजुरी भर कर पी लो
ऊँघ रहे हैं तारे
सिहरी सरसी
ओ प्रिय कुमुद ताकते
अनझिप क्षण में
तुम भी जी लो ।
सींच रही है ओस
हमारे गाने
घने कुहासे में
झिपते
चेहरे पहचाने
खम्भों पर बत्तियाँ
खड़ी हैं सीठी
ठिठक गये हैं मानों
पल-छिन
आने-जाने
उठी ललक
हिय उमगा
अनकहनी अलसानी
जगी लालसा मीठी,
खड़े रहो ढिंग
गहो हाथ
पाहुन मन-भाने,
ओ प्रिय रहो साथ
भर-भर कर अँजुरी पी लो
बरसी
शरद चाँदनी
मेरा अन्त:स्पन्दन
तुम भी क्षण-क्षण जी लो !
- अज्ञेय
4 टिप्पणियाँ:
bahut bhadiya kavitayen le kaar aate hain, kripya late rahe taki aapke pathak kavya raas paate rahen.
सही कहा काली भैया। जारी रखें अपना ये पुनीत काम।
काली जी, विजय जी और महावीर जी,
प्रोत्साहन के लिये सादर धन्यवाद । क्षमा चाहता हूँ के कुछ पारिवारिक कठिनाईयों के चलते 'कविता सागर' पर नियमित रूप से नयी कविताएँ प्रस्तुत नहीं कर पा रहा हूँ । मेरी कोशिश रहेगी कि सप्ताह में कम से कम ३ या ४ रचनाएँ प्रेषित करूँ ।
महावीर जी आपके सुझाव के लिये धन्यवाद। अगर आप भविष्य में और कोई रचना 'कविता सागर' पर चाहते हैं तो अवश्य लिखें ।
great kaviayen i m really like it
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