दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगॆ
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
- हरिवंशराय बच्चन
5 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छा कहा है बन्धु, ये कविता अपनी पहली पत्नि के वियोग मे लिखी थी बच्चन जी ने ...
मैंने बच्चन जी की बहुत कविताएँ नहीं पढ़ीं थीं, केवल 'मधुशाला' को छोडकर । परन्तु जब से खोजना आरम्भ किया है तो ऐसे-ऐसे मोती मिले हैं के चकित रह गया हूँ । जल्द ही उनकी और कईं कविताएँ आप कविता सागर पर पायेंगे
एक दम सही है। इसमें आज के जीवन के सार हैं।
आपको इतना अच्छा काम करने के लिये बधाई।
a nice poem
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