बुधवार, अक्तूबर 13, 2004

प्राप्ति

तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।

मुझे भर लिया तुमने गोद में,
कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये;

सूखे श्रम-सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले,
मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।

- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

2 टिप्पणियाँ:

8:36 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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2:47 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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