tag:blogger.com,1999:blog-72037442024-03-15T21:09:56.963-04:00कविता सागरहिन्दी साहित्य के समुद्र की अंतहीन गहराइयों से चुनी कुछ मधुर रचनाएँMunishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.comBlogger107125tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1163646354977193652006-11-15T22:02:00.000-05:002006-11-15T22:05:56.113-05:00आज मानव का सुनहला प्रात हैआज मानव का सुनहला प्रात है,<br />आज विस्मृत का मृदुल आघात है;<br />आज अलसित और मादकता-भरे,<br />सुखद सपनों से शिथिल यह गात है;<br /><br />मानिनी हँसकर हृदय को खोल दो,<br />आज तो तुम प्यार से कुछ बोल दो ।<br /><br />आज सौरभ में भरा उच्छ्वास है,<br />आज कम्पित-भ्रमित-सा बातास है;<br />आज शतदल पर मुदित सा झूलता,<br />कर रहा अठखेलियाँ हिमहास है;<br /><br />लाज की सीमा प्रिये, तुम तोड दो<br />आज मिल लो, मान करना छोड दो ।<br /><br />आज मधुकर कर रहा मधुपान है,<br />आज कलिका दे रही रसदान है;<br />आज बौरों पर विकल बौरी हुई,<br />कोकिला करती प्रणय का गान है;<br /><br />यह हृदय की भेंट है, स्वीकार हो<br />आज यौवन का सुमुखि, अभिसार हो ।<br /><br />आज नयनों में भरा उत्साह है,<br />आज उर में एक पुलकित चाह है;<br />आज श्चासों में उमड़कर बह रहा,<br />प्रेम का स्वच्छन्द मुक्त प्रवाह है;<br /><br />डूब जायें देवि, हम-तुम एक हो<br />आज मनसिज का प्रथम अभिषेक हो ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884496271574280.html">भगवतीचरण वर्मा </a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com65tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1158519632870632422006-09-22T09:00:00.000-04:002006-09-22T09:03:53.643-04:00पर्वत-सी पीरहो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,<br />इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।<br /><br />आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,<br />शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।<br /><br />हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,<br />हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।<br /><br />सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,<br />सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।<br /><br />मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,<br />हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/09/blog-post_18.html">दुष्यन्त कुमार</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1158519328351469162006-09-18T22:55:00.000-04:002006-09-18T23:01:19.976-04:00कहते हैं, तारे गाते हैंकहते हैं, तारे गाते हैं ।<br /><br />सन्नाटा वसुधा पर छाया,<br />नभ में हमने कान लगाया,<br />फिर भी अगणित कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं ।<br />कहते हैं, तारे गाते हैं ।<br /><br />स्वर्ग सुना करता यह गाना,<br />पृथ्वी ने तो बस यह जाना,<br />अगणित ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैँ ।<br />कहते हैं, तारे गाते हैं ।<br /><br />ऊपर देव, तले मानवगण,<br />नभ में दोनों गायन-रोदन,<br />राग सदा ऊपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं ।<br />कहते हैं, तारे गाते हैं ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884451797336310.html">हरिवंशराय बच्चन</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1158518567128390152006-09-18T22:48:00.000-04:002006-09-22T09:04:50.173-04:00दुष्यन्त कुमारदुष्यन्त कुमार जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :<br /><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/01/blog-post_29.html">मत कहो, आकाश में कुहरा घना है</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/01/blog-post_31.html">बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/09/blog-post_17.html">अपाहिज व्यथा</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/09/blog-post_22.html">पर्वत-सी पीर</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1158518020616744332006-09-17T14:32:00.000-04:002006-09-18T22:56:25.893-04:00अपाहिज व्यथाअपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,<br />तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।<br /><br />ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,<br />इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।<br /><br />अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,<br />उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।<br /><br />वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,<br />जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।<br /><br />तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,<br />तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।<br /><br />मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,<br />तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।<br /><br />समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,<br />सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/09/blog-post_18.html">दुष्यन्त कुमार</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1158452429982735422006-09-16T20:19:00.000-04:002006-09-17T13:50:49.473-04:00तुम तूफान समझ पाओगे ?तुम तूफान समझ पाओगे ?<br /><br />गीले बादल, पीले रजकण,<br />सूखे पत्ते, रूखे तृण घन<br />लेकर चलता करता 'हरहर'--इसका गान समझ पाओगे?<br />तुम तूफान समझ पाओगे ?<br /><br />गंध-भरा यह मंद पवन था,<br />लहराता इससे मधुवन था,<br />सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?<br />तुम तूफान समझ पाओगे ?<br /><br />तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ,<br />नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,<br />जाता है अज्ञात दिशा को ! हटो विहंगम, उड़ जाओगे !<br />तुम तूफान समझ पाओगे ?<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884451797336310.html">हरिवंशराय बच्चन</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1158451655856834932006-09-16T20:06:00.000-04:002006-09-16T20:07:36.206-04:00बस इतना--अब चलना होगाबस इतना--अब चलना होगा<br />फिर अपनी-अपनी राह हमें ।<br /><br />कल ले आई थी खींच, आज<br />ले चली खींचकर चाह हमें<br />तुम जान न पाईं मुझे, और<br />तुम मेरे लिए पहेली थीं;<br />पर इसका दुख क्या? मिल न सकी<br />प्रिय जब अपनी ही थाह हमें ।<br /><br />तुम मुझे भिखारी समझें थीं,<br />मैंने समझा अधिकार मुझे<br />तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,<br />था बना वही तो प्यार मुझे ।<br />तुम लोक-लाज की चेरी थीं,<br />मैं अपना ही दीवाना था<br />ले चलीं पराजय तुम हँसकर,<br />दे चलीं विजय का भार मुझे ।<br /><br />सुख से वंचित कर गया सुमुखि,<br />वह अपना ही अभिमान तुम्हें<br />अभिशाप बन गया अपना ही<br />अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें<br />तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,<br />तुम समझ न पाईं जीवन को<br />जन-रव के स्वर में भूल गया<br />अपने प्राणों का गान तुम्हें ।<br /><br />था प्रेम किया हमने-तुमने<br />इतना कर लेना याद प्रिये,<br />बस फिर कर देना वहीं क्षमा<br />यह पल-भर का उन्माद प्रिये।<br />फिर मिलना होगा या कि नहीं<br />हँसकर तो दे लो आज विदा<br />तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,<br />यह मेरा आशीर्वाद प्रिये ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884496271574280.html">भगवतीचरण वर्मा</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1158115899038217862006-09-12T22:49:00.000-04:002006-09-12T22:51:39.960-04:00मैं प्रिय पहचानी नहींपथ देख बिता दी रैन<br />मैं प्रिय पहचानी नहीं !<br /><br />तम ने धोया नभ-पंथ<br />सुवासित हिमजल से;<br />सूने आँगन में दीप<br />जला दिये झिल-मिल से;<br />आ प्रात बुझा गया कौन<br />अपरिचित, जानी नहीं !<br />मैं प्रिय पहचानी नहीं !<br /><br />धर कनक-थाल में मेघ<br />सुनहला पाटल सा,<br />कर बालारूण का कलश<br />विहग-रव मंगल सा,<br />आया प्रिय-पथ से प्रात-<br />सुनायी कहानी नहीं !<br />मैं प्रिय पहचानी नहीं !<br /><br />नव इन्द्रधनुष सा चीर<br />महावर अंजन ले,<br />अलि-गुंजित मीलित पंकज-<br />-नूपुर रूनझुन ले,<br />फिर आयी मनाने साँझ<br />मैं बेसुध मानी नहीं !<br />मैं प्रिय पहचानी नहीं !<br /><br />इन श्वासों का इतिहास<br />आँकते युग बीते;<br />रोमों में भर भर पुलक<br />लौटते पल रीते;<br />यह ढुलक रही है याद<br />नयन से पानी नहीं !<br />मैं प्रिय पहचानी नहीं !<br /><br />अलि कुहरा सा नभ विश्व<br />मिटे बुद्बुद्-जल सा;<br />यह दुख का राज्य अनन्त<br />रहेगा निश्चल सा;<br />हूँ प्रिय की अमर सुहागिनि<br />पथ की निशानी नहीं !<br />मैं प्रिय पहचानी नहीं !<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884585696500124.html">महादेवी वर्मा</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1138759319043532462006-01-31T20:55:00.000-05:002006-09-18T22:57:09.873-04:00बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैंबाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,<br />और नदियों के किनारे घर बने हैं ।<br /><br />चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,<br />इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।<br /><br />इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,<br />जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं ।<br /><br />आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन,<br />इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं ।<br /><br />जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,<br />हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।<br /><br />अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए,<br />हमसफ़र ऊँघे हुए हैं, अनमने हैं ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/09/blog-post_18.html">दुष्यन्त कुमार</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com56tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1138580806811309022006-01-29T19:25:00.000-05:002006-09-18T22:57:41.630-04:00मत कहो, आकाश में कुहरा घना हैमत कहो, आकाश में कुहरा घना है,<br />यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।<br /><br />सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,<br />क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।<br /><br />इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,<br />हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।<br /><br />पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,<br />बात इतनी है कि कोई पुल बना है<br /><br />रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,<br />आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।<br /><br />हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,<br />शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।<br /><br />दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,<br />आजकल नेपथ्य में संभावना है ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2006/09/blog-post_18.html">दुष्यन्त कुमार</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1136775608649322272006-01-08T21:56:00.000-05:002006-01-08T22:00:08.986-05:00आज तुम मेरे लिए होप्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।<br /><br />मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,<br />मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,<br />आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो<br />प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।<br /><br />रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,<br />आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,<br />तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो<br />प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।<br /><br />वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,<br />वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,<br />जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो<br />प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।<br /><br />मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,<br />पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,<br />मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो<br />प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884451797336310.html">हरिवंशराय बच्चन</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1131825286913612542005-11-22T10:45:00.000-05:002005-12-22T11:37:23.386-05:00कफन फाड़कर मुर्दा बोलाचमड़ी मिली खुदा के घर से<br />दमड़ी नहीं समाज दे सका<br />गजभर भी न वसन ढँकने को<br />निर्दय उभरी लाज दे सका<br /><br />मुखड़ा सटक गया घुटनों में<br />अटक कंठ में प्राण रह गये<br />सिकुड़ गया तन जैसे मन में<br />सिकुड़े सब अरमान रह गये<br /><br />मिली आग लेकिन न भाग्य-सा<br />जलने को जुट पाया इन्जन<br />दाँतों के मिस प्रकट हो गया<br />मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन<br /><br />किन्तु अचानक लगा कि यह,<br />संसार बड़ा दिलदार हो गया<br />जीने पर दुत्कार मिली थी<br />मरने पर उपकार हो गया<br /><br />श्वेत माँग-सी विधवा की,<br />चदरी कोई इन्सान दे गया<br />और दूसरा बिन माँगे ही<br />ढेर लकड़ियाँ दान दे गया<br /><br />वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,<br />धन्य हुआ मानव का चोला<br />कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।<br /><br />कहते मरे रहीम न लेकिन,<br />पेट-पीठ मिल एक हो सके<br />नहीं अश्रु से आज तलक हम,<br />अमिट क्षुधा का दाग धो सके<br /><br />खाने को कुछ मिला नहीं सो,<br />खाने को ग़म मिले हज़ारों<br />श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में<br />भूखे-बेदम मिले हज़ारों<br /><br />दाने-दाने पर पाने वाले<br />का सुनता नाम लिखा है<br />किन्तु देखता हूँ इन पर,<br />ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है<br /><br />दास मलूका से पूछो क्या,<br />'सबके दाता राम' लिखा है?<br />या कि गरीबों की खातिर,<br />भूखों मरना अन्जाम लिखा है?<br /><br />किन्तु अचानक लगा कि यह,<br />संसार बड़ा दिलदार हो गया<br />जीने पर दुत्कार मिली थी<br />मरने पर उपकार हो गया ।<br /><br />जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,<br />भोज मनाने बन्धु चल पड़े<br />जहाँ न कल थी बूँद दीखती,<br />वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े<br /><br />निर्धन के घर हाथ सुखाते,<br />नहीं किसी का अन्तर डोला<br />कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।<br /><br />घरवालों से, आस-पास से,<br />मैंने केवल दो कण माँगा<br />किन्तु मिला कुछ नहीं और<br />मैं बे-पानी ही मरा अभागा<br /><br />जीते-जी तो नल के जल से,<br />भी अभिषेक किया न किसी ने<br />रहा अपेक्षित, सदा निरादृत<br />कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने<br /><br />बाप तरसता रहा कि बेटा,<br />श्रद्धा से दो घूँट पिला दे<br />स्नेह-लता जो सूख रही है<br />ज़रा प्यार से उसे जिला दे<br /><br />कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,<br />एक-एक को मार गिराया<br />मन-मृग भोला रहा भटकता,<br />निकली सब कुछ लू की माया<br /><br />किन्तु अचानक लगा कि यह,<br />घर-बार बड़ा दिलदार हो गया<br />जीने पर दुत्कार मिली थी,<br />मरने पर उपकार हो गया<br /><br />आश्चर्य वे बेटे देते,<br />पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण<br />नमक-तेल रोटी क्या देना,<br />कर न सके जो आत्म-समर्पण !<br /><br />जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,<br />और स्वर्ग के द्वार न खोला !<br />कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884638328792789.html">श्यामनन्दन किशोर</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/42/76291906_2d0f2580ba_b.jpg" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none;" height="16" width="15" /></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1131821632006504182005-11-12T13:50:00.000-05:002005-11-12T13:59:37.640-05:00अजनबी देश है यहअजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है<br />कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है<br /><br />जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,<br />नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है<br /><br />होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त<br />द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है<br /><br />शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा<br />कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है<br /><br />देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं,<br />फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है<br /><br />हम कहीं और चले जाते हैं अपनी धुन में<br />रास्ता है कि कहीं और चला जाता है<br /><br />दिल को नासेह की ज़रूरत है न चारागर की<br />आप ही रोता है औ आप ही समझाता है ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/04/blog-post_111437501248784718.html">सर्वेश्वरदयाल सक्सेना</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/30/62508358_bafa33dd51_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none;" height="16" width="15" /></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1131113324029321872005-11-04T09:08:00.000-05:002005-11-04T09:08:44.220-05:00जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी (३)घिरी लंका के चारों ओर गहरा गूढ़ खाई थी<br />इन्हीं गड्ढों से महलों की गगनभेदी ऊँचाई थी<br />हज़ारों अस्मतों को लूटकर वह खिलखिलाता था<br />स्वयं सूरज तमस से तुप गया था, तिलमिलाता था<br /><br />सभी भूखे थे नंगे थे, तबाही ही तबाही थी<br />मगर अन्याय का प्रतिरोध करने की मनाही थी<br />किसी ने न्याय माँगा तो समझ लो उसकी आफ़त थी<br />न जीने की इजाज़त थी न मरने की इजाज़त थी<br /><br />धरा को क़ैद कर आराम से वह रह न सकता था<br />मनुज इस क्रूर शोषण को बहुत दिन सह न सकता था<br />स्वयं अन्याय ने पीड़ित दलित को ला जुटाया था<br />प्रवासी राम ने विद्रोह का बीड़ा उठाया था<br /><br />नये संघर्ष की यह शक्ति धरती ने जगायी थी<br />किसी अवधेश या मिथिलेश की सेना न आयी थी<br />सुबह से शाम तक जो राक्षसी अन्याय सहते थे<br />जिन्हें सब जंगली हैवान बन्दर भालु कहते थे<br /><br />नयी जनशक्ति की हर साँस से हुंकार उठती थी<br />प्रबल गतिरोध के विध्वंस की धधकार उठती थी<br />कि बर्बर राक्षसों का जंगली वीरों से पाला था<br />महीधर फाँद डाले थे समुन्दर बाँध डाला था<br /><br />उधर थी संगठित सेना अनेकों यन्त्र दुर्धर थे<br />इधर हुंकारते हाथों में केवल पेड़-पत्थर थे<br />मगर था एक ही आदर्श जीने का जिलाने का<br />विगत जर्जर व्यवस्था को स्वयं मिटकर मिटाने का<br /><br />नयी थी कामना, नवभावना, संदेश नूतन था<br />नयी थी प्रेरणा, नव कल्पना, परिवेश नूतन था<br />नया था मोल जीवन का विषमता ध्वंस करने का<br />नया था कौल मानव का, धरा को मुक्त करने का<br /><br />चली क्या राम की सेना कि धरती बोल उठती थी<br />अखंडित शक्ति का भण्डार अपना खोल उठती थी<br />धरा की लाड़ली की जब अभय आशीष पायी थी<br />किसी हनुमान ने तब स्वर्ण की लंका जलायी थी<br /><br />कँगूरे स्वर्ण-सौधों के धरा लुंठित दिखाते थे<br />नुकीले अस्त्र दुश्मन के निरे कुंठित दिखाते थे<br />अमन का शंख बजता था दमन की दाह होती थी<br />मनुज की दानवों को आज खुल करके चुनौती थी<br /><br />विजय का बिगुल बजता था, अनय का नाश होता था<br />अँधेरा साँस गिनता था, सबेरा पास होता था<br />सिसकती रात के अंचल में रजनीचर बिलखते थे<br />उभरती उषा की गोदी में नव अंकुर किलकते थे<br /><br />घड़ी अन्तिम समझ दनुकुल जले शोले गिराता था<br />प्रबल जनबल उन्हें फिर मोड़ उन पर ही फिराता था<br />नयी गंगा विषमता के कगारों को ढहाती थी<br />नयी धारा, नयी लहरें उसे समतल बनाती थी<br /><br />युगों की साधना-सी राम ने जब शक्ति छोड़ी थी<br />किसी जर्जर व्यवस्था की विकट चट्टान तोड़ी थी<br />कटे सिर-सा पड़ा रावण धरा पर छटपटाता था<br />विगत युग मर्सिया गाता, नया युग गान गाता था<br /><br />बहुत दिन बाद दलितों की हँसी की आज पारी थी<br />कि फिर से मुक्त था मानव कि फिर से मुक्त नारी थी<br />बँधी मुट्ठी दिखा जन-टोलियाँ जय-गान गाती थीं<br />कि नव निर्माण के जंगल में भी मंगल मनाती थी<br /><br />धरा की लाड़ली प्रिय से लिपटने को ललकती थी<br />नयी कोंपल के होठों से, नयी कलिका किलकती थी<br />चपल चपला-सी आँखों में नयी आभा झलकती थी<br />सुधा के युगकटोरों से मदिर छलकन छलकती थी<br /><br />सबेरे का भटकता शाम को घर लौट आया था<br />नयी उन्मुक्त जनता ने नया उत्सव मनाया था<br />छिनी धरती मिली फिर से नये सपने सँजोए थे<br />सभी ने खेत जोते थे सभी ने बीज बोए थे<br /><br />घिरा काली घटाएँ थीं अमा की रात काली थी<br />मगर मानव-धरा के सम्मिलन की बात ही ऐसी निराली थी<br /><br />अयोध्या में नये युग को बुलाने की बेहाली थी<br />कि जिसके साज स्वागत में सजी पहली दिवाली थी<br />धरा की लाड़ली ने स्वयं जिसकी ज्योति बाली थी<br />विकल सूखे हुए अधरों में नव मुस्कान ढाली थी<br /><br />कि अस्त-व्यस्त तारों में नयी स्वर तान ढाली थी<br />धरा में स्वर्ग से बढ़कर सरसता थी, खुशहाली थी<br />वही पहला जनोत्सव था वही पहली दिवाली थी<br /><br />लहलहाती जब धरा थी, शस्य-श्यामल<br />गुनगुनाती जब गिरा थी गीत कल-कल<br />छलछलाते स्नेह से जब पात्र छ्लछल<br />झलमलाते जब प्रभा के पर्व पल-पल<br /><br />आज तुम दुहरा रहे हो प्रथा केवल<br />आज घर-घर में नहीं है स्नेह सम्बल<br />आज जन-जन में नहीं है ज्योति का बल<br />आज सूखी वर्त्तिका का सुलगता गुल<br />दीप बुझते जा रहे हैं विवश ढुल-ढुल<br /><br />शेष खण्डहर में विगत युग की निशानी<br />सुन रहे हो स्वपन में जैसे कहानी<br />बन गई हो जिस तरह अपनी बिरानी<br /><br />किंतु जन-जागृति धधकती जा रही है<br />जल उठेगी फिर नयी बाती सुहानी<br />जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884530638308877.html">शिवमंगल सिंह सुमन</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/29/54366413_58b12ef116_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none;" height="16" width="15" /></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1131112977931550942005-11-04T08:55:00.000-05:002005-11-04T09:02:57.943-05:00जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी (२)तुम मनाते हो जिसे कहकर दिवाली<br />यह नहीं कोई प्रथा नूतन निराली<br />आज भी जग में अमा की रात काली<br />स्नेह से नव मृत्तिका के पात्र खाली<br /><br />अधर सूखे, गाल पिचके, दीन कोटरलीन आँखें<br />शलभ बेसुध छटपटाते क्लिन्न मन विछिन्न पाँखें<br />मुर्दनी वातावरण में धुएँ की घूर्णित घुटन-सी<br />दर-ब-दर फैली हुई, बदबू विकट शव के सड़न-सी<br />उग रहीं कीटाणु की फसलें<br />प्रलय-अणुबम बरसता<br />खो गयी मानव-हृदय की सब सरसता<br />और जीने के लिए जीवन तरसता<br /><br />युगों पहले एक दिन यों ही अँधेरा हो गया था<br />सूर्य, शनि, तारे छिपे सहसा, सवेरा खो गया था<br />एक काला हाथ ऊषा की ललाई धो गया था<br />गरज यह, जो कुछ न होना चाहिए वह हो गया था<br /><br />दौर नव कृषि सभ्यता का राम बन कर रम रहा था<br />कारवाँ यायावरों का बस रहा था, जम रहा था<br />झोंपड़ों में ज्योति जीवन का प्रदीप जला गयी थी<br />धरा की बेटी मनुज की ब्याहता बन आ गयी थी<br /><br />कि जिसके जनक ने धरती स्वयं जोती, स्वयं बोयी<br />कि हल की नोक में लक्ष्मी उलझ उभरी, रही खोयी<br /><br />ज़माना बाहुबल का था, स्वयंवर का बहाना था<br />जिसे पाना पिनाकी के धनुष पर ज्या चढ़ाना था<br />धनुष जो झिल न सकता था, धनुष जो हिल न सकता था<br />बिना अच्युत हुए जिसका निशाना मिल न सकता था<br /><br />धनुष को राम ने तोड़ा घने घनश्याम ने तोड़ा<br />नया निर्माण करना था पुराना तो पुराना था<br /><br />हुई आश्वस्त भयभीता<br />खिली धरती, मिली सीता<br />कि दिशि-दिशि दुंदुभी दमकी<br />वही जीता, वही जीता<br />किया जिसने अहल्या-सी शिला<br />को प्रीति-परिणीता<br /><br />धरा की आत्मजा कर में लिए वरमाल चलती थी<br />कि स्वर्णिम दीप की चल लौ अँधेरे में बिछलती थी<br />त्रियामा में किसी घनश्याम की छाती मचलती थी<br /><br />गड़ा धन पा गया मानव कि खेती लहलहाती थी<br />कि गेहूँ गहगहाता था, कि मक्का महमहाती थी<br />कि अरहर सरसराती थी, कि बजरा हरहराता था<br />कि अलसी आँख मलती थी, कि जौ में ज्वार आता था<br /><br />नयन में स्वप्न ढलते थे, हृदय में प्यार आता था<br />फसल उठती जवानी में लहरती झूम जाती थी<br />हवा दो हाथ आगे बढ़ उसे झुककर उठाती थी<br />लिपटते ही खुदी ख़ुद बेख़ुदी को चूम जाती थी<br /><br />हृदय से हृदय मिलते थे, अधर से अधर मिलते थे<br />नयी कोंपल निकलती थी, हँसी के फूल खिलते थे<br />निकट जब आग आती थी तो लज्जा भाग जाती थी<br /><br />गरज या दीपमाला सी जला करती थी धरती पर<br />नये अंकुर किलकते शुष्क बंजर, ख़ुश्क परती पर<br />मरुस्थल लहलहाता था कि चाहा चहचहाता था<br />अँधेरी रात में कोई खड़ा खेतों की मेड़ों पर<br />विकल विरहा सुनाता था<br /><br />फड़कते होंठ, सूखे तालुओं से<br />फिर तरी की माँग उठती थी<br />अचानक दिल धड़कता था<br />निशा भी जाग उठती थी<br /><br />न फिर सोने का लेती नाम थी<br />जो धुर सवेरे तक<br />कई संसार बनते ओ' बिगड़ते थे<br />अँधेरे से उजेले तक<br /><br />सहम-सी साँस जाती थी<br />शिथिल अंचल उठाती थी<br />उनींदी रात आँखों में नये सपने बसाती थी<br /><br />उभरती साँस छाती में<br />कि चोली कसमसाती थी<br />कहीं से धान की बाली<br />खड़ी चुप-चुप बुलाती थी<br /><br />चढ़ी स्वर की लहर में<br />भावना सी दौड़ जाती थी<br />रवानी खून की बढ़ कर<br />समुन्दर को सुखाती थी<br /><br />हवा में पेंग भरती थी<br />हिमालय को गलाती थी,<br />स्वयं मिटकर नयी हस्ती<br />नयी हस्ती बनाती थी<br /><br />कि नव-निर्माण की बेला<br />विधाता को लजाती थी<br />बदलते दीप थे पर<br />स्नेह लौ को खो न पाता था<br /><br />कि ब्रह्मानन्द का आनन्द<br />बासी हो न पाता था<br />क्षितिज से मेघ फटते थे<br />उषा भी खिलखिलाती थी<br />नये पत्तों पँखुरियों पर<br />नये मोती ढलाती थी<br /><br />कि दिन में दीप जलते थे<br />कि तन में दीप जलते थे<br />कि मन में दीप जलते थे<br />निशा में दीप जलते थे<br />दिशा में दीप जलते थे<br /><br />कि दीपों का नया त्यौहार घर-घर जगमगाता था<br />छलकता स्नेह पग-पग पर नयी धुन गुनगुनाता था<br />पवन नद नदी निर्झर में रवानी ही रवानी थी<br />कलि-अलि तरू-लता सब में जवानी ही जवानी थी<br /><br />नये ज्योतिष्क पिण्डों से तमस की कुछ न चलती थी<br />कहत या महामारी की न कुछ भी दाल गलती थी<br />विषमता दैन्य करूणा भूख सिर धुन-धुन के रोती थी<br />जगाजग ज्योति से उनके हृदय में जलन होती थी<br /><br />कि जो जग को रूलाने के लिए रावण बुला लायीं<br />अधमतम क्रूरकर्मा ध्वंस का धावन बुला लायीं<br />हरी खेती भरी बस्ती में जल-प्लावन बुला लायीं<br /><br />कि जिसने भव-विभवमय स्वर्ण की लंका बनायी थी<br />हजारों घर उजाड़े थे दीवाली खुद मनायी थी<br />चमकते स्वर्ण-कलशों में गरीबों की कमायी थी<br /><br />कुबेर ओ' इन्द्र जिसके द्वार पै दरबानी करते थे<br />पवन पंखा झला करता था पानी मेघ भरते थे<br />स्वयं यमराज चौखट से बँधे सब जुल्म सहते थे<br />विलासी देवगण को जिस तरह रखता था रहते थे<br /><br />प्रकृति की शक्तियाँ जिसकी सलामी निज बजाती थीं<br />हज़ारों तारिकाएँ दीपमालाएँ सजाती थीं<br />करोड़ों शव के अम्बारों पै सिंहासन बनाया था<br />धरा की नन्दिनी को बन्दिनी जिसने बनाया था<br /><br />दहलकर दम्भ से जिसको सभी दशशीश कहते थे<br />प्रबल आतंक से दो बाहुओं को बीस कहते थे<br />हवाओं की हवा उड़ती समुन्दर थरथराता था<br />जिसे लखकर खड़ी खेती को पाला मार जाता था<br /><br />ककहरा ज़ुल्म का बच्चों को बचपन से सिखाता था<br />कि वेदों और शास्त्रों की सदा होली जलाता था<br />मनन करते हुए मुनियों की खालें खींच लेता था<br />घरौंदे खेलते बच्चों की टाँगें चीर देता था<br /><br />पिताओं की सहेजी थातियों को छीन लेता था<br />किसानों के घरों के शेष दाने बीन लेता था<br />श्रमिक की रक्तमज्जा से रँगी जिसकी हवेली थी<br />धरा ने बड़े धीरज से दमन की धमक झेली थी<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884530638308877.html">शिवमंगल सिंह सुमन </a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/29/54366413_58b12ef116_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none" width="15" height="16"/></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1130688330073508522005-10-30T10:49:00.000-05:002005-11-02T13:27:09.263-05:00जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी (१)दीप, जिनमें स्नेहकन ढाले गए हैं<br />वर्तिकाएँ बट बिसुध बाले गए हैं<br />वे नहीं जो आँचलों में छिप सिसकते<br />प्रलय के तूफ़ान में पाले गए हैं<br /><br />एक दिन निष्ठुर प्रलय को दे चुनौती<br />हँसी धरती मोतियों के बीज बोती<br />सिंधु हाहाकार करता भूधरों का गर्व हरता<br />चेतना का शव चपेटे, सृष्टि धाड़ें मार रोती<br /><br />एक अंकुर फूटकर बोला कि मैं हारा नहीं हूँ<br />एक उल्का-पिण्ड हूँ, तारा नहीं हूँ<br />मृत्यु पर जीवन-विजय उदघोष करता<br />मैं अमर ललकार हूँ, चारा नहीं हूँ<br /><br />लाल कोंपल से गयी भर गोद धरती की<br />कि लौ थी जगमगाई,<br />लाल दीपों की प्रगति-परम्परा थी मुस्कराई,<br />गीत, सोहर, लोरियाँ जो भी कहो तुम<br />गोद कलियों से भरे लोनी-लता झुक झूम गायी<br />और उस दिन ही किसी मनु ने अमा की चीर छाती<br />मानवी के स्नेह में बाती डुबायी<br />जो जली ऐसी कि बुझने की बुझायी-<br />बुझ गयी, शरमा गयी, नत थरथरायी<br /><br />और जीवन की बही धारा जलाती दीप सस्वर<br />आग-पानी पर जली-मचली पिघलने लगे पत्थर<br /><br />जल उठे घर, जल उठे वन<br />जल उठे तन, जल उठे मन<br />जल उठा अम्बर सनातन<br />जल उठा अंबुधि मगन-मन<br />और उस दिन चल पड़े थे साथ उन्चासों प्रभंजन<br />और उस दिन घिर बरसते साथ उन्चासों प्रलय-घन<br /><br />अंधड़ों में वेग भरते वज्र बरबस टूट पड़ते<br />धकधकाते धूमकेतों की बिखर जाती चिनगियाँ<br />रौद्र घन की गड़गड़ाहट कड़कड़ाती थी बिजलियाँ<br /><br />और शिशु लौ को कहीं साया न था, सम्बल नहीं था<br />घर न थे, छप्पर न थे, अंचल नहीं था<br />हर तरफ़ तूफ़ान अन्धड़ के बगूले<br />सृष्टि नंगी थी अभी बल्कल नहीं था<br /><br />सनसनाता जब प्रभंजन लौ ध्वजा-सी फरफराती<br />घनघनाते घन कि दुगुणित वेदना थी मुस्कराती<br />जब झपेटों से कभी झुक कर स्वयं के चरण छूती<br />एक लोच कमान की तारीकियों को चीर जाती<br /><br />बिजलियों से जो कभी झिपती नहीं थी<br />प्रबल उल्कापात से छिपती नहीं थी<br />दानवी तम से अकड़ती होड़ लेती<br />मानवी लौ थी कि जो बुझती नहीं थी<br />क्योंकि उसको शक्ति धरती से मिली थी<br />हर कली जिस हवा पानी में खिली थी<br /><br />सहनशीलता, मूकतम जिसकी अतल गहराइयों में<br />आह की गोड़ी निगोड़ी खाइयों में<br />स्नेह का सोता बहा करता निरंतर<br />बीज धँसता ही चला जाता जहाँ जड़ मूल बनकर<br />गोद में जिसके पला करता विधाता विवश बनकर<br /><br />धात्री है वह सृजन के पंथ से हटती नहीं है<br />व्यर्थ के शिकवे प्रलय-संहार के रटती नहीं है<br />जानती है वह कि मिट्टी तो कभी मिटती नहीं है<br />आग उसकी ही निरंतर हर हृदय में जल रही है<br /><br />स्वर्ण दीपों की सजीव परम्परा-सी चल रही है<br />हर अमा में, हर ग्रहन की ध्वंसपूर्ण विभीषिका में<br />एक कसकन, एक धड़कन, बार-बार मचल रही है<br />बर्फ की छाती पिघलकर गल रही है, ढल रही है<br /><br />आज भी तूफान आता सरसराता<br />आज भी ब्रह्माण्ड फटता थरथराता<br />आज भी भूचाल उठते, क़हर ढहता<br />आज भी ज्वालामुखी लावा उगलता<br /><br />एक क्षण लगता की जीत गया अँधेरा<br />एक क्षण लगता कि हार गया सवेरा<br />सूर्य, शशि, नक्षत्र, ग्रह-उपग्रह सभी को<br />ग्रस रहा विकराल तम का घोर घेरा<br /><br />किंतु चुंबक लौह में फिर पकड़ होती<br />दो दिलों में, धमनियों में रगड़ होती<br />वासना की रूई जर्जर बी़च में ही<br />उसी लौ की एक चिनगी पकड़ लेती<br /><br />और पौ फटती, छिटक जाता उजाला<br />लाल हो जाता क्षितिज का वदन काला<br />देखते सब, अंध कोटर, गहन गह्वर के तले पाताल की मोटी तहों को<br />एक नन्ही किरण की पैनी अनी ने छेद डाला,<br />मैं सुनाता हूँ तुम्हें जिसकी कहानी<br />बात उतनी ही नयी है, हो चुकी जितनी पुरानी<br />जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884530638308877.html">शिवमंगल सिंह सुमन</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/24/59038879_4236cb5b56_b.jpg" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none;" height="16" width="15" /></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1130446372918486122005-10-27T16:48:00.000-04:002005-10-27T16:57:10.426-04:00मृत्तिका दीपमृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष<br />एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष ।<br /><br />हाय जी भर देख लेने दो मुझे<br />मत आँख मीचो<br />और उकसाते रहो बाती<br />न अपने हाथ खींचो<br />प्रात जीवन का दिखा दो<br />फिर मुझे चाहे बुझा दो<br />यों अंधेरे में न छीनो-<br />हाय जीवन-ज्योति के कुछ क्षीण कण अवशेष ।<br /><br />तोड़ते हो क्यों भला<br />जर्जर रूई का जीर्ण धागा<br />भूल कर भी तो कभी<br />मैंने न कुछ वरदान माँगा<br />स्नेह की बूँदें चुवाओ<br />जी करे जितना जलाओ<br />हाथ उर पर धर बताओ<br />क्या मिलेगा देख मेरा धूम्र कालिख वेश ।<br /><br />शांति, शीतलता, अपरिचित<br />जलन में ही जन्म पाया<br />स्नेह आँचल के सहारे<br />ही तुम्हारे द्वार आया<br />और फिर भी मूक हो तुम<br />यदि यही तो फूँक दो तुम<br />फिर किसे निर्वाण का भय<br />जब अमर ही हो चुकेगा जलन का संदेश ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884530638308877.html">शिवमंगल सिंह सुमन</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/27/56679182_9a2509a8cc_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none" width="15" height="16"/></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1130423423110332282005-10-27T10:28:00.000-04:002005-10-27T10:36:20.663-04:00पर आँखें नहीं भरींकितनी बार तुम्हें देखा<br />पर आँखें नहीं भरीं।<br /><br />सीमित उर में चिर-असीम<br />सौंदर्य समा न सका<br />बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग<br />मन रोके नहीं रुका<br />यों तो कई बार पी-पीकर<br />जी भर गया छका<br />एक बूँद थी, किंतु,<br />कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।<br />कितनी बार तुम्हें देखा<br />पर आँखें नहीं भरीं।<br /><br />शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी<br />कण-कण में बिखरी<br />मिलन साँझ की लाज सुनहरी<br />ऊषा बन निखरी,<br />हाय, गूँथने के ही क्रम में<br />कलिका खिली, झरी<br />भर-भर हारी, किंतु रह गई<br />रीती ही गगरी।<br />कितनी बार तुम्हें देखा<br />पर आँखें नहीं भरीं।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884530638308877.html">शिवमंगल सिंह सुमन</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/32/56584137_23de037a82_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none" width="15" height="16"/></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1129922638062208832005-10-21T15:23:00.000-04:002005-10-21T15:27:57.363-04:00कर्मवीरदेख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं<br />रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं<br />काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नहीं<br />भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं<br />हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले<br />सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।<br /><br />आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही<br />सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही<br />मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही<br />जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही<br />भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं<br />कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।<br /><br />जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं<br />काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं<br />आज कल करते हुये जो दिन गंवाते हैं नहीं<br />यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं<br />बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये<br />वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये ।<br /><br />व्योम को छूते हुये दुर्गम पहाड़ों के शिखर<br />वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर<br />गर्जते जल-राशि की उठती हुयी ऊँची लहर<br />आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट<br />ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं<br />भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_112982063287818091.html">अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/31/54647709_84fae103e5_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none" width="15" height="16"/></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1129820933395169552005-10-21T09:15:00.000-04:002005-10-21T09:15:48.980-04:00गजानन माधव मुक्तिबोध(१३ नवंबर १९१७ - ११ सितंबर १९६४)<br /><br />गजानन माधव मुक्तिबोध जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :<br /><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_12.html">मृत्यु और कवि</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_112912899282362867.html">नाश देवता</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_112913525641132207.html">ऐ इन्सानों</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1129820632878180912005-10-20T10:57:00.000-04:002005-10-21T15:24:57.616-04:00अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'(१५ अप्रैल १८६५ - १६ मार्च १९४७)<br /><br />अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी की कविता सागर पर प्रेषित हुई रचनाएँ :<br /><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/05/blog-post_111611796737800667.html">फूल और काँटा</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_19.html">एक बूँद</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_112982024647254245.html">आँख का आँसू</a><br /><a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_112992263806220883.html">कर्मवीर</a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1129820246472542452005-10-20T10:55:00.000-04:002005-10-20T13:39:41.233-04:00आँख का आँसूआँख का आँसू ढ़लकता देखकर<br />जी तड़प कर के हमारा रह गया<br />क्या गया मोती किसी का है बिखर<br />या हुआ पैदा रतन कोई नया ?<br /><br />ओस की बूँदे कमल से है कहीं<br />या उगलती बूँद है दो मछलियाँ<br />या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी<br />खेलती हैं खंजनों की लडकियाँ ।<br /><br />या जिगर पर जो फफोला था पड़ा<br />फूट कर के वह अचानक बह गया<br />हाय था अरमान, जो इतना बड़ा<br />आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया ।<br /><br />पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ<br />यों किसी का है निराला पन भया<br />दर्द से मेरे कलेजे का लहू<br />देखता हूँ आज पानी बन गया ।<br /><br />प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी<br />वह नहीं इस को सका कोई पिला<br />प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी<br />वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला ।<br /><br />ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो<br />वह समझते हैं सफर करना इसे<br />आँख के आँसू निकल करके कहो<br />चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?<br /><br />आँख के आँसू समझ लो बात यह<br />आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े<br />क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह<br />जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े ।<br /><br />हो गया कैसा निराला यह सितम<br />भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया<br />यों किसी का है नहीं खोते भरम<br />आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_112982063287818091.html">अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' </a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/33/54327578_18b07e2169_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none;" height="16" width="15" /></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1129814607577666502005-10-20T09:21:00.000-04:002005-10-20T12:45:34.930-04:00मातृ-भाषा के प्रतिनिज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल<br />बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।<br /><br />अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन<br />पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।<br /><br />उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय<br />निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।<br /><br />निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय<br />लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।<br /><br />इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग<br />तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।<br /><br />और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात<br />निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।<br /><br />तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय<br />यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।<br /><br />विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार<br />सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।<br /><br />भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात<br />विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।<br /><br />सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय<br />उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।<br /><br />- भारतेंदु हरिश्चंद्र<br /><br /><a href="http://static.flickr.com/25/54332934_395a2f7e93_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none" width="15" height="16"/></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1129743564060756212005-10-19T13:37:00.000-04:002005-10-20T12:55:00.323-04:00फसलहल की तरह<br />कुदाल की तरह<br />या खुरपी की तरह<br />पकड़ भी लूँ कलम तो<br />फिर भी फसल काटने<br />मिलेगी नहीं हम को ।<br /><br />हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे<br />क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे<br />हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को<br />सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।<br /><br />कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी<br />मेरे ना रहने पर भी<br />हवा से इठलाएगी<br />तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी<br />जिन्होने बीज बोए थे<br />उन्हीं के चरण परसेगी<br />काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे<br />हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/04/blog-post_111437501248784718.html">सर्वेश्वरदयाल सक्सेना</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/31/54334194_e15ca2d63e_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none" width="15" height="16"/></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7203744.post-1129743265807640002005-10-19T13:32:00.000-04:002005-10-20T13:40:49.506-04:00एक बूँदज्यों निकल कर बादलों की गोद से<br />थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी<br />सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,<br />आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी ?<br /><br />देव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा,<br />मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?<br />या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,<br />चू पडूँगी या कमल के फूल में ?<br /><br />बह गयी उस काल एक ऐसी हवा<br />वह समुन्दर ओर आई अनमनी<br />एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला<br />वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।<br /><br />लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते<br />जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर<br />किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें<br />बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।<br /><br />- <a href="http://hindipoetry.blogspot.com/2005/10/blog-post_112982063287818091.html">अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'</a><br /><br /><a href="http://static.flickr.com/25/54334193_b9922c1c7a_o.png" title="Image of this post"><img src="http://static.flickr.com/26/54330484_0d7054981f_o.png" style="border-style: none;" height="16" width="15" /></a>Munishhttp://www.blogger.com/profile/01237020444765003132noreply@blogger.com1