गुरुवार, फ़रवरी 17, 2005

पतझड़ की शाम

है यह पतझड़ की शाम, सखे !

नीलम-से पल्लव टूट ग‌ए,
मरकत-से साथी छूट ग‌ए,
अटके फिर भी दो पीत पात
जीवन-डाली को थाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !

लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली
कू-कू कर कोयल माँग रही
नूतन घूँघट अविराम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !

नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में है कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जा‌एगी;
यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !

- हरिवंशराय बच्चन

3 टिप्पणियाँ:

5:15 am पर, Blogger लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " ने कहा ...

bahut sundar..........

 
6:46 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

wahh bahut khubb likha hai bachan ji ne

 
6:00 am पर, Blogger Rahul Solanki ने कहा ...

पतझड़ के मोसम की भी अपनी ही एक अलग बात होती है | आपकी इस कविता में पतझड़ के मोसम का बहुत अच्छा वर्णन किया गया है | काफी रोचक कविता है| Talented India News

 

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