पतझड़ की शाम
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
नीलम-से पल्लव टूट गए,
मरकत-से साथी छूट गए,
अटके फिर भी दो पीत पात
जीवन-डाली को थाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली
कू-कू कर कोयल माँग रही
नूतन घूँघट अविराम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में है कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जाएगी;
यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
- हरिवंशराय बच्चन
3 टिप्पणियाँ:
bahut sundar..........
wahh bahut khubb likha hai bachan ji ne
पतझड़ के मोसम की भी अपनी ही एक अलग बात होती है | आपकी इस कविता में पतझड़ के मोसम का बहुत अच्छा वर्णन किया गया है | काफी रोचक कविता है| Talented India News
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