शनिवार, सितंबर 18, 2004

कौन तुम मेरे हृदय में

कौन तुम मेरे हृदय में ?

कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित ?
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपरिचित ?

स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में !
कौन तुम मेरे हृदय में ?

अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरन्तर ?
चूमने पदचिन्ह किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर

कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?

एक करूण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत शत,

पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?

गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या ?
आज खो निज को मुझे
खोया मिला, विपरीत सा क्या

क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन-मधु-दिन के उदय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?

तिमिर-पारावार में
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरभित ?

सुन रहीं हूँ एक ही
झंकार जीवन में, प्रलय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?

मूक सुख दुख कर रहे
मेरा नया श्रृंगार सा क्या ?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार सा क्या ?

आज पुलकित सृष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में
कौन तुम मेरे हृदय में ?

- महादेवी वर्मा

1 टिप्पणियाँ:

2:16 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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निराशावादी

पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास

उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।

क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,

लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।

- रामधारी सिंह दिनकर

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2:19 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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शनिवार, सितंबर 04, 2004

आभार

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।

जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं

दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।

साँसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई

पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।

जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर

इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।

कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर

आभारी हूँ मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।

- शिवमंगल सिंह सुमन

3 टिप्पणियाँ:

8:34 pm पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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2:19 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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2:45 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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