शनिवार, मई 14, 2005

फूल और काँटा

हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चाँद भी,
एक ही सी चाँदनी है डालता ।

मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं ।

छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन ।

फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला ।

है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर ।

- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

4 टिप्पणियाँ:

7:54 pm पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

विकिपीडिया हिन्दी में योगदान करना न भूलें
hi.wikipedia.org

 
2:03 pm पर, Blogger Dharni ने कहा ...

बहुत ही बढ़िया कविता है! अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - बहुत दिनों बाद यह नाम सुना..बचपन में कोई कविता पढ़ी थी इनकी किसी पाठ्य-पुस्तक में - और कोई कविता है इनकी आपके पास?

 
1:04 am पर, Blogger Anshul ने कहा ...

अापका जालस्थल देख कर मज़ा अा गया!

 
9:28 pm पर, Blogger Munish ने कहा ...

धन्यवाद अन्शुल ।

बहुत समय से कोई रचना प्रेषित ना कर पाने के लिये कविता सागर के पाठकों से क्षमा चाहता हूँ । भविष्य में प्रयत्न रहेगा कि यह गलती फिर ना हो ।

 

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जलियाँवाला बाग में बसंत

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

- सुभद्रा कुमारी चौहान

रविवार, मई 08, 2005

अँधेरे का दीपक

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था,

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना,
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर,
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

- हरिवंशराय बच्चन

5 टिप्पणियाँ:

4:58 pm पर, Blogger Sarika Saxena ने कहा ...

बच्चन जी की इतनी अच्छी रचना उपलब्ध कराने के लिये शुक्रिया....

 
2:10 am पर, Blogger Manish Kumar ने कहा ...

Behtareen blog hai aapka munish ji!
Mujhe bhi ye kavita behad pasand!

hai andheri raat par diya jalana kab mana hai

shukriya yahan ise share karne ka!

 
3:38 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

Genial dispatch and this fill someone in on helped me alot in my college assignement. Thank you seeking your information.

 
12:56 pm पर, Blogger Unknown ने कहा ...

bhut bhut dhanyvad is poem ke liye or bachan ji ko is poem k liye sukriya (sandeep Gurgaon 8750804242)

 
12:58 pm पर, Blogger Unknown ने कहा ...

bhut bhut dhanyvad is poem ke liye or bachan ji ko is poem k liye sukriya (sandeep Gurgaon 8750804242)

 

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शनिवार, मई 07, 2005

अक्सर एक व्यथा

अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।

अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।

अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

4 टिप्पणियाँ:

1:40 am पर, Blogger Pratyaksha ने कहा ...

मैं ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को बहुत नहीं पढा है....पर अब आपके सौजन्य से मौका मिल रहा है....बहुत खूबसूरत कविता है..
शुक्रिया..

 
8:41 pm पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

very beautiful poetry .
thnks for publishing it

 
7:11 am पर, Anonymous Asha kumar kundra ने कहा ...

Aksar bahut kuch hota hai usko sabdo me apane bakhubi dhala hai aksar man udhas hota hai or kahi door badh hume bula raha hota hai

 
12:19 pm पर, Anonymous Gopal Krishna ने कहा ...

I thing this poem is most close with me, Shrveshwar Dayal sir thanks............

 

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बुधवार, मई 04, 2005

सुर्ख़ हथेलियाँ

पहली बार
मैंने देखा
भौंरे को कमल में
बदलते हुए,
फिर कमल को बदलते
नीले जल में,
फिर नीले जल को
असंख्य श्वेत पक्षियों में,
फिर श्वेत पक्षियों को बदलते
सुर्ख़ आकाश में,
फिर आकाश को बदलते
तुम्हारी हथेलियों में,
और मेरी आँखें बन्द करते
इस तरह आँसुओं को
स्वप्न बनते -
पहली बार मैंने देखा ।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

3 टिप्पणियाँ:

11:50 pm पर, Blogger अनूप भार्गव ने कहा ...

बहुत ही सुन्दर कविता है । विस्तार को यकायक सहजता से समेट लेने की कला ।

 
12:37 am पर, Blogger Pratyaksha ने कहा ...

बहुत सुन्दर.......पढ कर अच्छा लगा....

 
12:50 pm पर, Blogger Munish ने कहा ...

प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद । अगर आप अपनी कोई मनपसन्द रचना 'कविता सागर' पर पढ़ना चाहते हैं तो अवश्य लिखें ।

 

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रविवार, मई 01, 2005

पतझड़ के पीले पत्तों ने

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
'लो टूट चुका बन्धन मेरा!'
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !

- भगवतीचरण वर्मा

4 टिप्पणियाँ:

3:50 am पर, Anonymous vaibhav ने कहा ...

this is very nice poem in hindi

 
3:51 am पर, Anonymous vaibhav ने कहा ...

this is very nice

 
12:49 am पर, Blogger Unknown ने कहा ...



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10:02 am पर, Blogger luckys ने कहा ...

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