शनिवार, मई 07, 2005

अक्सर एक व्यथा

अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।

अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।

अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

4 टिप्पणियाँ:

1:40 am पर, Blogger Pratyaksha ने कहा ...

मैं ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को बहुत नहीं पढा है....पर अब आपके सौजन्य से मौका मिल रहा है....बहुत खूबसूरत कविता है..
शुक्रिया..

 
8:41 pm पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

very beautiful poetry .
thnks for publishing it

 
7:11 am पर, Anonymous Asha kumar kundra ने कहा ...

Aksar bahut kuch hota hai usko sabdo me apane bakhubi dhala hai aksar man udhas hota hai or kahi door badh hume bula raha hota hai

 
12:19 pm पर, Anonymous Gopal Krishna ने कहा ...

I thing this poem is most close with me, Shrveshwar Dayal sir thanks............

 

टिप्पणी करें

<< मुखपृष्ट