फूल और काँटा
हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चाँद भी,
एक ही सी चाँदनी है डालता ।
मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं ।
छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन ।
फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला ।
है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर ।
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
4 टिप्पणियाँ:
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बहुत ही बढ़िया कविता है! अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - बहुत दिनों बाद यह नाम सुना..बचपन में कोई कविता पढ़ी थी इनकी किसी पाठ्य-पुस्तक में - और कोई कविता है इनकी आपके पास?
अापका जालस्थल देख कर मज़ा अा गया!
धन्यवाद अन्शुल ।
बहुत समय से कोई रचना प्रेषित ना कर पाने के लिये कविता सागर के पाठकों से क्षमा चाहता हूँ । भविष्य में प्रयत्न रहेगा कि यह गलती फिर ना हो ।
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