शनिवार, जुलाई 31, 2004

नया कवि : आत्म-स्वीकार

किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।
कोई मधुकोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया ।

किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैंने दुर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।

कोई हुनरमन्द था:
मैंने देखा और कहा, 'यों!'
थका भारवाही पाया -
घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!'

किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।
किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।

किसी की कली थी
मैंने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली ।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा--अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।

- अज्ञेय

2 टिप्पणियाँ:

2:03 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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2:39 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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गुरुवार, जुलाई 29, 2004

कहीं गरजे, कहीं बरसे

बहुत दिन तक बड़ी उम्मीद से देखा तुम्हें जलधर,
मगर क्या बात है ऎसी, कहीं गरजे कहीं बरसे ।

जवानी पूछती मुझसे बुढ़ापे की कसम देकर,
कहो क्यों पूजते पत्थर रहे तुम देवता कहकर ।

कहीं तो शोख सागर है मचलता भूल मर्यादा,
कहीं कोई अभागिन चातकी दो बूँद को तरसे ।

किसी निष्ठुर हृदय की याद आती जब निशानी की,
मुझे तब याद आती है कहानी आग-पानी की ।

किसी उस्ताद तीरन्दाज़ के पाले पड़ा जीवन,
निशाने साधता दो-दो पुराने एक ही शर से ।

नहीं जो मंदिरों में है, वही केवल पुजारी है,
सभी को बाँटता जो है, कहीं वह भी भिखारी है ।

प्रतीक्षा में जगा जो भोर तक तारा, मिटा-डूबा
जगाता पर अरूण सोए कमल-दल को किरण-कर से ।

- श्यामनन्दन किशोर

3 टिप्पणियाँ:

11:55 am पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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रविवार, जुलाई 25, 2004

अन्तरंग

ये तिरस्कार, ये पुरस्कार
दोनों ही माता के दुलार ।

दोनों मिलते हैं अकस्मात
दोनों लाते हैं अश्रुपात
दोनों में साँसों का चढ़ाव
दोनों में साँसों का उतार ।

ये तिरस्कार मरू की ज्वाला
जो रचती मेघ-खण्ड-माला
ये तिरस्कार तीव्रानुभूति
रचती ज्वलन्त साहित्यकार ।

ये पुरस्कार कण्टकाकीर्ण
साधना बनाते ज़रा-जीर्ण
दो चार बढ़ाते आलोचक
दो चार बनाते समाचार ।

ये तिरस्कार ये पुरस्कार
दोनों ही माता की पुकार
दोनों में झंकृत होता है
माँ की वीणा का तार-तार ।

- श्यामनन्दन किशोर

4 टिप्पणियाँ:

11:57 am पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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11:59 am पर, Blogger Emily Katie ने कहा ...

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2:06 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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2:40 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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सोमवार, जुलाई 19, 2004

जाहिल मेरे बाने

मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूँ

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं

आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाये हूँ याने !

- भवानीप्रसाद मिश्र

1 टिप्पणियाँ:

4:18 am पर, Blogger Unknown ने कहा ...

Bahut sunder kavita

 

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रविवार, जुलाई 11, 2004

सवेरे उठा तो धूप खिली थी

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गयी थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गयी थी ।

मैने धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार
चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?
मैने घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी तिनके की नोक-भर?
शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी-किरण की ओक-भर?
मैने हवा से माँगा: थोड़ा खुलापन-बस एक प्रश्वास;
लहर से: एक रोम की सिरहन-भर उल्लास ।
मैने आकाश से माँगी
आँख की झपकी-भर असीमता - उधार ।

सब से उधार माँगा, सब ने दिया ।
यों मैं जिया और जीता हूँ
क्योंकि यही सब तो है जीवन
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,
गन्धवाही मुक्त खुलापन, लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का:
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य ।

रात के अकेले अन्धकार में
सामने से जागा जिस में
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर मुझ से पूछा था: क्यों जी,
तुम्हारे इस जीवन के
इतने विविध अनुभव हैं
इतने तुम धनी हो,
तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे उधार, जिसे मैं
सौगुने सूद के साथ लौटाऊँगा
और वह भी सौ-सौ बार गिन के
जब-जब आऊँगा?
मैने कहा: प्यार? उधार?
स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार ।

उस अनदेखे अरूप ने कहा: हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं
यह अकेलापन, यह अकुलाहट, यह असमंजस, अचकचाहट,
आर्त, अनुभव,यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय विरह व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि
जो मेरा है वही ममेतर है
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार-इस एक बार
मुझे जो चरम आवश्यकता है ।

उस ने यह कहा,
पर रात के घुप अंधेरे में
मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:
अनदेखे अरूप को
उधार देते मैं डरता हूँ:
क्या जाने यह याचक कौन है ?

- अज्ञेय

4 टिप्पणियाँ:

1:05 pm पर, Blogger Pratik Pandey ने कहा ...

कविता स्वयं कवि की ही तरह अद्भुत है। प्रस्तुतीकरण के लिए धन्यवाद।

 
11:27 pm पर, Blogger Munish ने कहा ...

प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद, प्रतीक ।

 
5:08 am पर, Blogger Digvijay ने कहा ...

yeh kavita bahut hi acchi hai. Iska english anuvadd kya uplabdh hai? Bahut bahut dhanyavaad.

 
2:27 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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मंगलवार, जुलाई 06, 2004

भगवतीचरण वर्मा

विनय जी के अनुरोध पर मैने भगवतीचरण वर्मा जी के बारे में जानकारी खोजना आरंभ किया तो 'अभिव्यक्ति' का यह पन्ना मिला । यहाँ आप उनकी कहानी 'आवारे' भी पढ़ सकते हैं । उनकी कुछ कविताएं 'अनुभूति' पर भी मौजूद हैं ।

उन्हें राज्यसभा की मानद सदस्यता १९७८ में प्राप्त हुई । १९६९ में उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' उपाधि से भी सम्मानित किया गया । उनकी कृतियों में 'चाणक्य' भी शामिल है ।

('अभिव्यक्ति' पर उनके निधन का वर्ष १९८१ लिखा है यद्यपि अन्य जाल स्थलों पर यह १९८० है । )


1 टिप्पणियाँ:

11:44 am पर, Blogger v9y ने कहा ...

शुक्रिया, मुनीश।

 

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