सोमवार, जून 28, 2004

आज शाम है बहुत उदास

आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास ।

दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास ।

कुछ भूला सा और भ्रमा सा
केवल मैं हूँ अपने पास
एक धुंध में कुछ सहमी सी
आज शाम है बहुत उदास ।

एकाकीपन का एकांत
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत ।

थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त ।

अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकांत
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत ।

उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार ।

आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर?
एक प्रशन मैं हूँ साकार ।

क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार ।

सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास ।

जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस ।

जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास ।

- भगवतीचरण वर्मा

4 टिप्पणियाँ:

10:48 am पर, Blogger v9y ने कहा ...

वाह!

क्या यह सम्भव होगा कि कवि (भगवती चरण वर्मा जी) के बारे में भी कुछ जानकारी उपलब्ध करा सकें. मुझे याद है कि हमारी दसवीं (या ग्यारवीं) की किताब में उनकी कविता(एँ) थीं. पर कौन सी, यह अब याद नहीं.

बहरहाल धन्यवाद.

 
6:18 am पर, Blogger Rahul Solanki ने कहा ...

कविता के माद्यम से बहुत ही कम शब्दों में काफी कुछ समझया गया है | आपकी यह कविता वाकई जाग्रत करने वाली है | मै इसे अपने मित्रो और रिश्दारो को जरूर शेयर करूँगा | Talented India News App

 
2:26 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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10:21 pm पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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बुधवार, जून 23, 2004

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें ।

जीवन-सरिता की लहर-लहर,
मिटने को बनती यहाँ प्रिये
संयोग क्षणिक, फिर क्या जाने
हम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये ।

पल-भर तो साथ-साथ बह लें,
कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें ।

आओ कुछ ले लें औ' दे लें ।

हम हैं अजान पथ के राही,
चलना जीवन का सार प्रिये
पर दुःसह है, अति दुःसह है
एकाकीपन का भार प्रिये ।

पल-भर हम-तुम मिल हँस-खेलें,
आओ कुछ ले लें औ' दे लें ।

हम-तुम अपने में लय कर लें ।

उल्लास और सुख की निधियाँ,
बस इतना इनका मोल प्रिये
करुणा की कुछ नन्हीं बूँदें
कुछ मृदुल प्यार के बोल प्रिये ।

सौरभ से अपना उर भर लें,
हम तुम अपने में लय कर लें ।

हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें ।

जग के उपवन की यह मधु-श्री,
सुषमा का सरस वसन्त प्रिये
दो साँसों में बस जाय और
ये साँसें बनें अनन्त प्रिये ।

मुरझाना है आओ खिल लें,
हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें ।

- भगवतीचरण वर्मा

8 टिप्पणियाँ:

1:31 am पर, Blogger लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " ने कहा ...

bahut sundar rachana hai man ko bhaa gai aapko hardik subhakaamnayen .....

 
1:40 am पर, Blogger लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " ने कहा ...

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें । AADARNIY BHAGVATICHARAN JI KI KAVITA MAN KO CHHU GAI ......

 
1:43 am पर, Blogger लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " ने कहा ...

इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

 
9:23 pm पर, Blogger सुनीता ने कहा ...

बीहुत खूब।

 
9:25 pm पर, Blogger सुनीता ने कहा ...

Very nice

 
6:24 am पर, Blogger Rahul Solanki ने कहा ...

अगर देखा जाये तो कवी आज के जीवन का मुख्या आधार स्तम्भ है जब जब इस देश की राजनीति गलत राह की और आगे बदती है तब तब कविताओ के माद्यम से उसे सही रास्ते पर लाया गया है | Talented India News App

 
2:26 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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रविवार, जून 20, 2004

मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ

मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।

थपकियों से आज झंझा
के भले ही दीप मेरा
बुझ रहा है, और पथ में,
जा रहा छाये अँधेरा ।

पर न है परवाह कुछ भी,
और कुछ भी ग़म नहीं है
ज्योति दीपक को, तिमिर को,
पथ की पहचान दी है ।

मैं लुटा सर्वस्व-संचित
पूर्ण भी हूँ, रिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

अग्नि-कण को फूँक कर,
ज्वाला बुझाई जा रही है
अश्रु दे दॄग में, जलन,
उर की मिटाई जा रही है ।

इस सुलभ वरदान को मैं,
क्यों नहीं अभिशाप समझूँ ?
मैं न क्यों इस सजल घन से,
है बरसता ताप समझूँ ?
मैं मरूँ क्या, मैं जिऊँ क्या,
शुष्क भी हूँ, सिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

मैं तुम्हारे प्राण के यदि,
अंक में तो क्या हुआ रे ?
है मनोरम कमल बसता
पंक में तो क्या हुआ रे ?
मैं तुम्हारे जाल में पड़
बद्ध भी हूँ, मुक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

- श्यामनन्दन किशोर

4 टिप्पणियाँ:

7:45 pm पर, Blogger v9y ने कहा ...

मुनीश:

सबसे पहले तो साधुवाद और बधाई यह ब्लॉग शुरू करने के लिये। मैं इसके नियमित दर्शकों में से हूँ। आशा है आप भी नियमित रहेंगे। :)

और अब, आदत से मजबूर :), कुछ तुच्छ से वर्तनी शुद्धिकरण सुझाव:

पथ की पहचान दी है > पंथ ?
में मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।। > मैं
मैं तुम्हारे जाल में पड > पड़

शुभ..

विनय
hindi.blogspot.com

 
10:05 am पर, Blogger Munish ने कहा ...

आपके सुझावों के लिये धन्यवाद विनय ।

>> पथ की पहचान दी है > पंथ ?
जहाँ तक याद पड़ता है, कवि ने 'पथ' ही प्रयोग किया है 'पंथ' नहीं । परन्तु मैं अवश्य ही यह सुनिश्चित करने का प्रयत्न करूँगा ।

>>में मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।। > मैं
>>मैं तुम्हारे जाल में पड > पड़

यह दोनो मेरी गलतियाँ हैं जिन्हे मैं शीघ्रतम संशोधित करूँगा |

 
2:25 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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दरिंदा

दरिंदा
आदमी की आवाज़ में
बोला

स्वागत में मैंने
अपना दरवाज़ा
खोला

और दरवाज़ा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई

मानवता
थोडी बहुत जितनी भी थी
ढेर हो गई !

- भवानीप्रसाद मिश्र

( मित्रों आप अपनी टिप्पणियाँ, सुझाव एवं आलोचनाएँ hindipoetry@gmail.com पर भेज सकते हैं । )

3 टिप्पणियाँ:

5:36 am पर, Anonymous rajendra shukla ने कहा ...

kavita achhi lagi

 
2:25 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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2:42 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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गुरुवार, जून 10, 2004

आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ , है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ , सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

- गोपालप्रसाद व्यास

(यह कविता मुझे केवल आधी ही याद थी, शेष पंक्तियाँ काव्यालय में मिलीं ।)

3 टिप्पणियाँ:

6:01 am पर, Blogger Chittranjan ने कहा ...

AAh I really liked it.

Visited your Blog for the first time.

Please put Nahush Patan also on your blog.

I am hunting for it for many days.

I also remember very few lines of that poem. and want it in full

 
10:23 pm पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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तपते दिन की अगन

बुझ गयी तपते हुए दिन की अगन
सांझ ने चुपचाप ही पी ली जलन
रात झुक आयी पहन उजला वसन
'प्राण' तुम क्यूँ मौन हो, कुछ गुनगुनाओ
चाँदनी के फूल चुन लो मुस्कुराओ ।

एक नीली झील सा फैला अचल
आज ये आकाश है कितना सजल
चांद जैसे डूबता उभरा कंवल
रात भर इस रूप का जादू जगाओ
'प्राण' तुम क्यूँ मौन हो, कुछ गुनगुनाओ ।

चल रहा है चैत का चंचल का पवन
बाँध लो बिख्ररे हुए कुंतल सघन
पोंछ लो कजरा उदासीले नयन
मांग भर लो, भाल पर बिंदिया सजाओ
'प्राण' तुम क्यूँ मौन हो, कुछ गुनगुनाओ ।

- पं. विनोद शर्मा

2 टिप्पणियाँ:

2:23 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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2:44 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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बुधवार, जून 09, 2004

जी-मेल

मित्रो,

गूगल ई-मेल अथवा 'जी-मेल' के विषय में तो आपने अवश्य सुना होगा, अगर नहीं तो आप यहां उसके बारे में पढ सकतें हैं । जी-मेल की सदस्यता अभी केवल निमन्त्रण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । यूँ तो वेब पर कई जगह ऎसे निमन्त्रण उपलब्ध हैं, परन्तु अगर आप कुछ उन लोगों में से हैं जिन्हे यह अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है और निमन्त्रण चाहते हैं, तो हिन्दी कविता पर अपने हाथ आज़मायें । अपनी मौलिक कविता munish को जी-मेल डॉट कॉम पर भेजें । सबसे अच्छी रचना को 'कविता सागर' की एक प्रविष्टी में प्रेषित किया जायेगा एवं पुरस्कार स्वरूप एक जी-मेल निमन्त्रण भेजा जायेगा । वैसे कविता सृजन का आनन्द किसी जी-मेल का मोहताज नहीं है, किन्तु कदाचित इस बहाने से आप , जो अब तक इस आनन्द रस में डुबकी लगाने से कतरा रहे थे, इस अमृत सागर में छ्लांग लगा ही दें ।

आपका मित्र कवितारसिक,
मुनीश

6 टिप्पणियाँ:

11:35 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

प्रिय मित्र मुनीश,

तुम्हारी हिन्दी इतनी सुन्दर होगी, येह मालुम न था. जानकर प्रसन्नता हुई । लगे रहो..

सुरम्य

 
11:55 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

bahut khoob.. Jawaab nahi aapka -
aapka mitra eVam shubh-chintak, Ravinder Pal

 
7:17 pm पर, Blogger Mihir ने कहा ...

अरे मुनीश ,
आमच्यासारख्या मराठी माणसान्नी कशा काय वाचाव्यात बरे हिन्दी कविता? का अशा लिन्क्स पाठवतोस?
मिहिर

 
1:23 am पर, Blogger The Critical Thinker ने कहा ...

dear munish ji,

agar kisi ke pass mail account, nahi hai to vo aapke gmail account pe kaise kavita bhej sakta hai

 
2:23 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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2:45 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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मंगलवार, जून 08, 2004

ज़िन्दगी

मित्रों,

जीवन एवं उसके अर्थ पर अनगिनत रचनाएँ लिखी गयी हैं । सो मैं भी आपके समक्ष अपनी एक तुच्छ रचना प्रस्तुत कर रहा हूं ।

ज़िन्दगी क्यों अजब इक पहेली सी है
क्षण में अंजान ,क्षण में सहेली सी है ।

है उल्लास थोडा, भय भी कुछ है मिला
काँपती नव-वधू की हथेली सी है ।

कोहरे मे रात के, भोर की ये किरण
तप्त मरु में जो खिलती चमेली सी है ।

नगर की धुंध में, स्वप्न बन रह गयी
गाँव की उस पुरानी हवेली सी है ।

मत्त श्रॄंगार में, प्रौढ से बेखबर
नार इतरा के चलती नवेली सी है ।

नीम की शाख के रस में लिपटी हुई
खट्टी ईमली, कभी गुड की भेली सी है ।

सूखे हैं पात सारे, रंग सबके उडे
लगती क्यों 'मन' को फिर भी रंगोली सी है ।

- मुनीश

7 टिप्पणियाँ:

12:01 am पर, Blogger M ने कहा ...

wonder full!

 
7:32 pm पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

It touched to the bottom of my Heart.
Georgeous!
Pankaj UPADHYAY from AUSTRALIA

 
10:13 pm पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

आपकी तुच्छ कविता कहीं अधिक ही ऊंची जान पड़ती है। बहुत ही सुंदर संरचना है।

 
5:52 pm पर, Blogger Munish ने कहा ...

प्रोत्साहन के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।

 
3:15 am पर, Anonymous Asha kumar kundra ने कहा ...

Man ko chone wali kavita
Jindagi jitani jee tapovan see hai
Jindagi jitana chahege anmol see hai
Jindagi jitana sochage paheli see hai
Asha kumar kundra

 
2:22 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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2:46 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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सोमवार, जून 07, 2004

प्रणाम

हिन्दी भाषा के सभी प्रेमियों को सादर प्रणाम ।

कई वर्षों से विदेश में रहने के कारण अपनी भाषा से जैसे नाता टूट ही गया था । दफ़्तर में अंग्रेज़ी, दुकान में अंग्रेज़ी, भोजनालयों में अंग्रेज़ी हर तरफ़ अंग्रेज़ी का ऐसा बोलबाला था, कि हिन्दी वर्णमाला तक स्मृतिपटल से मिट गयी । वैसे इसके पीछे मेरे मराठी भाषित मित्रों का भी बहुत बडा योगदान है (जो शायद ये पढकर ठहाके मार कर हँस रहे होंगे) जिनकी 'सु'-संगति में मेरी हिन्दी कब मराठी, मुम्बईया और 'फ़िल्मैया' का मिश्रण बनी पता ही नहीं चला ।

खैर, कुछ दिनों पहले एक मित्र ने बरहा नामक वेबसाइट से मेरा परिचय कराया (धन्यवाद समीर) जिसके द्वारा भारतीय भाषाओं में ब्लोग्स अर्थात चिट्ठे लिखने एवं वेब पर प्रकाशित करने (धन्यवाद ब्लोगर) की आसान तकनीक मालूम हुई। उसके पश्चात जो ढूंढना आरम्भ किया तो अन्य बहुत सारे चिट्ठों और वेबसाइट्स के बारे में पता चला जो इस यूनीकोड तकनीक का इस्तेमाल करते हैं।

तो बस श्रीमान हिन्दी कविता के प्रेमवश एवं अपने सुप्त, और सम्भवतः लुप्त, हिन्दी भाषा ज्ञान को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से इस नये चिट्ठे की शुरुआत की है । आशा करता हूं कि इस चिट्ठे के माध्यम से हिन्दी भाषा के आनंद से वंचित पाठकों के साथ कविताम्रत का रसपान कर सकूंगा ।

आपका मित्र कवितारसिक,
मुनीश

2 टिप्पणियाँ:

1:16 am पर, Blogger debashish ने कहा ...

हिन्दी ब्लॉगजगत में स्वागत! पता किजिएगा कि आपके प्रयास में कहीं कॉपीराईट का अनजाने ही उल्लंघन तो नहीं हो रहा। वैसे आपकी मौलिक रचनाओं और चिट्ठों की भी प्रतीक्षा रहेगी :)

 
2:47 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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रविवार, जून 06, 2004

सूनी साँझ

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

पेड खडे फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधुली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

कुलबुल कुलबुल नीड-नीड में
चहचह चहचह मीड-मीड में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

जागी-जागी सोई-सोई
पास पडी है खोई-खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमडी धारा, जैसी मुझपर-
बीती झेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँख मिचौनी
खुलकर खेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

- शिवमंगल सिंह सुमन

शुक्रवार, जून 04, 2004

पतवार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

- शिवमंगल सिंह सुमन

4 टिप्पणियाँ:

4:42 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

अपनी किशोरावस्था में इस कविता को पढ़ा और गूथा था। एक बार फिर इसे पढ़कर वे दिन याद आ गए। प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।

एक संशोधन कराना चाहूँगा

"नहरों का यौवन मचला है" में "नहरों" की जगह "लहरों" होना चाहिए।

-- अनिल गोयल

 
11:29 am पर, Blogger tbsingh ने कहा ...

very nice and inspiring

 
7:10 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

ओज एवं उत्साहवर्धक कविता-----मधु डिमरी

 
2:49 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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जो तुम आ जाते

जो तुम आ जाते एक बार ।

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार ।

हंस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार ।

- महादेवी वर्मा

5 टिप्पणियाँ:

4:48 pm पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

भैया मुनीश,

बहुत सुन्दर...

धन्यवाद..

 
5:04 am पर, Anonymous बेनामी ने कहा ...

bahut sundar rachna hai,

 
9:22 am पर, Blogger Ash ने कहा ...

mahadeviji ne is kavita se na kewal apne jivan balki ek bhartiya nari ke jiwan ke vishad ka chitran kiya hai.

 
5:38 am पर, Anonymous LAXMI NARAYAN LAHRE KOSIR ने कहा ...

BAHUT HI SUNDAR KAVITA HAI JO TUM AA JATE .......

 
2:50 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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गुरुवार, जून 03, 2004

असमंजस

जीवन में कितना सूनापन
पथ निर्जन है, एकाकी है,
उर में मिटने का आयोजन
सामने प्रलय की झाँकी है

वाणी में है विषाद के कण
प्राणों में कुछ कौतूहल है
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन
पग अस्थिर है, मन चंचल है

यौवन में मधुर उमंगें हैं
कुछ बचपन है, नादानी है
मेरे रसहीन कपालो पर
कुछ-कुछ पीडा का पानी है

आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही
बस एक मात्र मेरा धन है
मेरी श्वासों, निःश्वासों में
आशा का चिर आश्वासन है

मेरी सूनी डाली पर खग
कर चुके बंद करना कलरव
जाने क्यों मुझसे रूठ गया
मेरा वह दो दिन का वैभव

कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत
भावी है व्यापक अन्धकार
उस पार कहां? वह तो केवल
मन बहलाने का है विचार

आगे, पीछे, दायें, बायें
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ
तुम एक ओर, दूसरी ओर
चलते फिरते कंकाल यहाँ

इस ओर रूप की ज्वाला में
जलते अनगिनत पतंगे हैं
उस ओर पेट की ज्वाला से
कितने नंगे भिखमंगे हैं

इस ओर सजा मधु-मदिरालय
हैं रास-रंग के साज कहीं
उस ओर असंख्य अभागे हैं
दाने तक को मुहताज कहीं

इस ओर अतृप्ति कनखियों से
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर साधना पथ पर
मानवता मुझे पुकार रही

तुमको पाने की आकांक्षा
उनसे मिल मिटने में सुख है
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
असमंजस है, दुस्सह दुख है

बन-बनकर मिटना ही होगा
जब कण-कण में परिवर्तन है
संभव हो यहां मिलन कैसे
जीवन तो आत्म-विसर्जन है

सत्वर समाधि की शय्या पर
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा
जिनका कोई भी आज नहीं
मिटकर उनको अपना लूँगा ।

- शिवमंगल सिंह सुमन

6 टिप्पणियाँ:

3:11 pm पर, Blogger shama ने कहा ...

Asamanjas kavita achhi lagi.
shama

 
6:05 am पर, Blogger Ashish Gupta ने कहा ...

Bahut Bahut sunder aur Yatharthvadi Kavita hai.

 
1:57 am पर, Blogger swadha ने कहा ...

बहुत ही सुन्दर............
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12:34 pm पर, Blogger Pramod Dwivedi ने कहा ...

bachhan ji ki line is par priye madhu hai tum ho us paar na jane kya hoga. ka yatharth swaroop.

Pramod dwivedi

 
2:41 am पर, Blogger Rossie ने कहा ...

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2:51 am पर, Blogger Daisy ने कहा ...

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