गुरुवार, अक्तूबर 20, 2005

आँख का आँसू

आँख का आँसू ढ़लकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया ?

ओस की बूँदे कमल से है कहीं
या उगलती बूँद है दो मछलियाँ
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी
खेलती हैं खंजनों की लडकियाँ ।

या जिगर पर जो फफोला था पड़ा
फूट कर के वह अचानक बह गया
हाय था अरमान, जो इतना बड़ा
आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया ।

पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ
यों किसी का है निराला पन भया
दर्द से मेरे कलेजे का लहू
देखता हूँ आज पानी बन गया ।

प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी
वह नहीं इस को सका कोई पिला
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी
वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला ।

ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो
वह समझते हैं सफर करना इसे
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?

आँख के आँसू समझ लो बात यह
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े ।

हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया
यों किसी का है नहीं खोते भरम
आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?

- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

2 टिप्पणियाँ:

5:58 pm पर, Blogger Laxmi ने कहा ...

मुनीश जी,

हरिऔध जी की ये कवितायें एक युग पहले पढ़ी थीं। बहुत पसन्द हैं मुझे। प्रकाशित करने के लिये धन्यवाद।

 
4:15 pm पर, Blogger Munish ने कहा ...

लक्ष्मी जी,

मैंने भी ये बहुत वर्षों पहले स्कूल में पढीं थीं। बहुत आनन्द आया इन्हें दोबारा पढ़ कर। जितना ढूँढता हूँ उतनी ही एक से बढ़कर एक कविता मिलती है। भविष्य में ऐसी और बहुत सी रचनाएँ लाने का प्रयास रहेगा।

प्रोत्साहन के लिये आभारी हूँ।

 

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