गुरुवार, अक्तूबर 20, 2005

मातृ-भाषा के प्रति

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।

- भारतेंदु हरिश्चंद्र

2 टिप्पणियाँ:

10:29 pm पर, Blogger अनुनाद सिंह ने कहा ...

भरतेन्दु की यह कविता मात्र कविता नहीं बल्कि भारत की भाषा-नीति की पथ-प्रदर्शक बननी चाहिये । लम्बी अवधि की हमारी भाषा-नीति यही होनी चाहिये कि दुनिया का सारा ज्ञान यथा-कथा सीखकर अपनी भाषा में उसको लिखे-पढें और पढायें ।


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

 
4:27 pm पर, Blogger Munish ने कहा ...

बिल्कुल सही कहा अनुनाद जी। मैं भी इस भाव से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। चाहे विश्व की किसी भी भाषा में ज्ञान हासिल करो, परन्तु निज-भाषा में उसका प्रचार अत्यंत आवश्यक है। और खास कर हिन्दी के लिये। अंग्रेज़ी के आक्रमण के पश्चात हिन्दी की हालत काफी ख़राब हो चली है। विज्ञान और तकनीकी क्षेत्रों में तो ये अब मृतप्राय ही है। देखें अब कब इसे पुनर्जीवन मिलता है। या मिलता भी है या नहीं!

 

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