फसल
हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को ।
हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।
कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
1 टिप्पणियाँ:
मुनीश ,सर्वेश्वर दयाल जी की लिखी प्रेरणादायक पंक्तियों के लिये धन्यवाद। इस कविता ने कहीं से, सुमित्रानंदन पंत जी कविता 'आ: धरती कितना देती है ' की याद भी दिलवायी है।
टिप्पणी करें
<< मुखपृष्ट